शंकर छंद
(1)
आजकाल के लइका मन हा , मानय नहीं बात ।
घूम घूम के खावत रहिथे , मेछा ल अटियात ।।
धरे हाथ मा मोबाइल ला , चलावत हे नेट ।
कोनों चिल्लावय बाहिर ले , खोलय नहीं गेट ।।
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(2)
तीपे हावय भुइयाँ अब्बड़ , जरय चटचट पाँव ।
सुरताये बर खोजे सबझन , दिखत नइहे छाँव ।।
एसो गरमी बाढ़े हावय , चलत अब्बड़ झाँझ ।
निकलत नइहे घर ले कोनों , सबो घूमय साँझ ।।
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(3)
पेड़ सबो कट गेहे संगी , मिलत नइहे छाँव ।
भटकत हावय जीव जंतु सब , कहाँ मिलही ठाँव ।।
नवतप्पा के गरमी भारी , जरत हावय पाँव ।
मुश्किल होगे निकले बर जी , गाँव कइसे जाँव ।।
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(4)
तोर शरण मा आवँव मइया , मोर रखले लाज ।
गलती झन होवय काँही वो ,बनय बिगड़े काज ।।
सुमिरन करके तोरे माता , लिखँव मँय मतिमंद ।
कंठ बिराजो शारद मइया , रोज गावँव छंद ।
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(5)
गरजत हावय बादर संगी , घटा हे घनघोर ।
रहि रहि अब्बड़ बिजुरी चमके , ह्दय काँपे मोर ।।
रापा कुदरी सकला करके , चलव खेती खार ।
आय किसानी के दिन संगी , खातु माटी टार ।।
महेन्द्र देवांगन माटी
पंडरिया छत्तीसगढ़
Mahendra Dewangan Mati
नियम --
16 + 10 = 26 मात्रा
पद - 4 , चरण -- 8
दू दू डांड़ सम चरण में तुकांत
अंत में गुरु लघु ( 2 , 1 ) अनिवार्य
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