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बसंत आ गे

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जब ले आ हे ऋतु बसंत हा , मन हा सबके डोलत हे । बाग बगीचा सुघ्घर लागे , रहि रहि कोयल बोलत हे ।। मउरे हावय आमा संगी , अब्बड़ के ममहावत हे । फूले हावय फूल सबो जी,  सबके मन ला भावत हे ।। सुरसुर सुरसुर हवा चलत हे , डारा पाना डोलत हे । बाग बगीचा सुघ्घर लागे , रहि रहि कोयल बोलत हे ।। पींयर पींयर सरसों फूले , खेत खार मा झूमत हे । चना मटर ला खाये बर जी,  लइका मन सब घूमत हे ।। आये हे संदेश पिया के , छुप छुप चिठ्ठी खोलत हे । बाग बगीचा सुघ्घर लागे , रहि रहि कोयल बोलत हे ।। (लावणी छंद)  मात्रा- -- 16 +14 = 30 रचनाकार महेन्द्र देवांगन माटी  पंडरिया छत्तीसगढ़  8602407353 Mahendra Dewangan Mati @