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बारी के फूट

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बारी के फूट *************** वाह रे बारी के  फूट , फरे हस तैं चारों खूँट । बजार में आते साठ , लेथय आदमी लूट । दिखथे सुघ्घर गोल गोल, अब्बड़ येहा मिठाय । छोटे बड़े जम्मो मनखे , बड़ सऊंख से खाय । जेहा येला नइ खाय , अब्बड़ ओहा पछताय । मीठ मीठ लागथे सुघ्घर, खानेच खान भाय । बखरी मा फरे हावय , पाना मा लुकाय । कलेचुप बेंदरा आके, कूद कूद के खाय । नान नान लइका मन , चोराय बर जाय । कका ह लऊठी धर के, मारे बर कुदाय । कूदत फांदत भागे टूरा , नइ पावय पार । डोकरी ह चिल्लात हावय , मुँहू ल तोर टार । अब्बड़ फरे हे बारी मा , नइ बोलंव मय झूठ । सबो झन ला नेवता हावय , खाय बर आहू फूट । रचना प्रिया देवांगन "प्रियू" पंडरिया  (कवर्धा ) छत्तीसगढ़ priyadewangan1997@gmail.com

दोहे के रंग

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दोहे के रंग गरम गरम हावा चलत ,  माथ पसीना आय । जेठ महीना घाम हा,  सबला बहुत जनाय ।।1।। मूड़ म साफी बाँध के, पानी पीके जाव  । रखव गोंदली जेब मा , *लू* से होत बचाव ।।2।। जनम दिवस के मौज मा , काटव झन जी केक । ओकर बदला प्रेम से,   पेड़ लगावव एक ।।3।। पानी नइहे खेत मा,  कइसे होही धान । देखत हवय अगास ला , भुँइया के भगवान ।।4।। बेटा राखव एक झन , कुल मा करय प्रकाश । जइसे तारा बीच मा ,  चंदा रहय अगास ।।5।। करिया दिखय अगास हा,  घटा हवय घनघोर । गरजत बादर जोर से, वन मा नाचय मोर ।।6।। खेलव झन जी आग से, हो जाथे ये काल । धन दौलत हा बर जथे, बन जाथे कंगाल ।।7।। भेद भाव करके कभू, आगी झने लगाव । सुनता से रहि के सबो,  घर परिवार चलाव ।।8।। आगी पानी देख के, लइका लोग बचाव । अलहन झन आवय कभू , सुघ्घर चेत लगाव ।।9।। पनही नइहे गोड़ मा , चट चट जरथे पाँव । आगी जइसे  घाम  हे , खोजय सबझन छाँव ।।10।। जंगल मा आगी लगय  , जुर मिल सबो  बुझाव । झन होवय नुकसान जी, सबके जीव  बचाव ।।11।। पानी हा अनमोल हे , कीमत एकर जान । बिन पानी जीवन नहीं  , येला तैंहर मान ।।12।। छत के उपर टांग दे , पानी भरे गिलास ।

जय महावीर

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सत्य मार्ग पर चलकर जिसने, जीना हमको सीखलाया । दया करो सब प्राणियों पर , अहिंसा का मार्ग हमें बतलाया । सुख और दुख आते जीवन में, यह तो ईश्वर की रचना है । विचलीत ना हो कभी दुख में,  महावीर का कहना है । झूठ बोलना पाप है प्यारे , सत्य वचन से नाता जोड़ो । दया धर्म उपकार करो और, छल कपट करना छोड़ो । जीवन से मोक्ष का मार्ग बताया , जगत में जिसका नाम है । ऐसे *महावीर स्वामी* जी को , शत शत *माटी* का प्रणाम है । *महेन्द्र देवांगन* *माटी*

तब कविता बन जाती है

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कोयल जब गाती है, मीठी तान सुनाती है । अपने मधुर स्वर से,  बागों को गुंजाती है । तब कविता बन जाती है । बादल जब गरजता है, बिजली भी चमकती है । आसमान में काले काले , घनघोर घटा छा जाती है । तब कविता बन जाती है । गाय जब रंभाती है, बछड़े को पिलाती है । गोधुली बेला में अपने, पैरों से धूल उड़ाती है । तब कविता बन जाती है । घर आँगन में फुदक फुदक कर , चिड़िया जब चहचहाती है । पायल की रुनझुन आवाज सुन, गुड़िया रानी खिलखिलाती है । तब कविता बन जाती है । बारिश की पहली फुहार ,जब तन मन को भिगाती है। माटी की सौंधी खुशबू, जब चारों ओर फैल जाती है । तब कविता बन जाती है । चलती है मस्त हवाएं जब , बागों से खुशबू आती है । कोई चाँद सा चेहरा जब , आँखों में बस जाती है । तब कविता बन जाती है । माँ अपने कोमल हाथों से, रोटी जब खिलाती है । खुद भूखी रहकर भी जब , बच्चों को दूध पिलाती है । तब कविता बन जाती है । महेन्द्र देवांगन "माटी" पंडरिया 8602407353 Mahendra Dewangan Mati 21/03/2018

माटी के दोहे - 1

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(1) माटी के काया हरय,  माटी मा मिल जाय । झन कर गरब गुमान तैं , काम तोर नइ आय ।। (2) गाँव गाँव बाजा बजे,  गावत हावय फाग । रंग गुलाल उड़ात हे , झोंकय सब झन राग ।। (3) आमा मउरे बाग मा , कोयल मारत कूक । धनी मोर आवत हवे ,  जियरा होवत धूक ।। (4) पउधा लगाव जतन से,  सुंदर दिखही गाँव । खाबो फल हम रोज के,  मिलही हमला छाँव ।। (5) राम नाम अनमोल हे , येकर कर लव जाप । महामंत्र येहा हरे , कट जाही सब पाप ।। (6) मीठा बोली बोल ले , झन कर तैंहा भेद । एक बोल मधुरस सहीं, दूसर करथे छेद ।। (7) लक्ष्मी दुर्गा कालिका , नारी देवी जान । राखव येकर मान जी,  होये झन अपमान ।। (8) हाँसी खुशी बोल ले, जिनगी के दिन चार । कब आ जाही काल हा , कोइ न पाये पार ।। (9) दया करव सब जीव बर , कोनों ल झन सताव । सबके एके जीव हे , मिल बांट के खाव ।। (10) माता जी के दरश बर, जावत हव मय आज । देके दरशन मोर तैं , पूरा करबे काज ।। (11) काम करव अइसे तुमन , आवय सबके काम । लोगन सब सुरता करय,  जग मा होवय नाम ।। (12) ठगजग बाढ़त दिनों दिन, करत हावय धंधा । असली साधु चुप बइठे  , नकली लेवत चँदा ।। (13) सोना सोना स

लिखात नइहे

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लिखात नइहे लिखे बर बइठे हंव , फेर लिखात नइहे । गुनत हांवव मने मन , फेर गुनात नइहे । एको ठन कविता ला , महूं बना लेतेंव । फेसबुक अऊ वाटसप में, तुरते भेज देतेंव । सोचत हांवव मने मन , फेर सोंचात नइहे । लिखे बर बइठे हंव,  फेर लिखात नइहे  । कोन विषय में लिखंव , एला मय खोजत हंव । हास्य लिखव के सिंगार , एला मय सोचत हंव । धरहूं कहिथों पेन ला , फेर धरात नइहे । लिखे बर बइठे हंव,  फेर लिखात नइहे । महेन्द्र देवांगन "माटी"     पंडरिया 8602407353 11/03/18

कलिन्दर

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कलिन्दर ************ वाह रे कलिन्दर , लाल लाल दिखथे अंदर । बखरी मा फरे रहिथे  , खाथे अब्बड़ बंदर । गरमी के दिन में,  सबला बने सुहाथे । नानचुक खाबे ताहन, खानेच खान भाथे । बड़े बड़े कलिन्दर हा , बेचाये बर आथे । छोटे बड़े सबो मनखे,  बिसा के ले जाथे । लोग लइका सबो कोई, अब्बड़ मजा पाथे । रसा रहिथे भारी जी, मुँहू कान भर चुचवाथे । खाय के फायदा ला , डाक्टर तक बताथे । अब्बड़ बिटामिन  मिलथे,  बिमारी हा भगाथे । जादा कहूँ खाबे त  , पेट हा तन जाथे । एक बार के जवइया ह, दू बार एक्की जाथे । महेन्द्र देवांगन माटी Mahendra Dewangan Mati 10/03/18