प्रकृति की लीला
प्रकृति की लीला
देख तबाही के मंजर को, मन मेरा अकुलाता है।
एक थपेड़े से जीवन यह, तहस नहस हो जाता है ।।
करो नहीं खिलवाड़ कभी भी, पड़ता सबको भारी है।
करो प्रकृति का संरक्षण, कहर अभी भी जारी है ।।
मत समझो तुम बादशाह हो, कुछ भी खेल रचाओगे।
पाशा फेंके ऊपर वाला, वहीं ढेर हो जाओगे ।।
करते हैं जब लीला ईश्वर, कोई समझ न पाता है ।
सूखा पड़ता जोरों से तो, बाढ़ कभी आ जाता है ।।
संभल जाओ दुनिया वालों, आई विपदा भारी है।
कैसे जीवन जीना हमको, अपनी जिम्मेदारी है ।।
महेन्द्र देवांगन माटी
पंडरिया छत्तीसगढ़
Mahendra Dewangan Mati
देख तबाही के मंजर को, मन मेरा अकुलाता है।
एक थपेड़े से जीवन यह, तहस नहस हो जाता है ।।
करो नहीं खिलवाड़ कभी भी, पड़ता सबको भारी है।
करो प्रकृति का संरक्षण, कहर अभी भी जारी है ।।
मत समझो तुम बादशाह हो, कुछ भी खेल रचाओगे।
पाशा फेंके ऊपर वाला, वहीं ढेर हो जाओगे ।।
करते हैं जब लीला ईश्वर, कोई समझ न पाता है ।
सूखा पड़ता जोरों से तो, बाढ़ कभी आ जाता है ।।
संभल जाओ दुनिया वालों, आई विपदा भारी है।
कैसे जीवन जीना हमको, अपनी जिम्मेदारी है ।।
महेन्द्र देवांगन माटी
पंडरिया छत्तीसगढ़
Mahendra Dewangan Mati

आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 03 जुलाई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteधन्यवाद मैडम जी
Deleteबहुत सुन्दर रचना ! जब प्रकृति कुपित हो जाती है तब सब तहस नहस हो जाता है ! सार्थक सृजन !
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ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 8 जुलाई 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
धन्यवाद पम्मी मैडम जी
Deleteसुंदर संदेशात्मक सृजन सर।
ReplyDeleteसादर।
धन्यवाद श्वेता सिन्हा मेम जी
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